डार्क सर्कल भी गहरी कहानी कहते हैं।
आँखों के नीचे बने डार्क सर्कल भी एक कहानी बयां करते हैं। उस सपने को परिभाषित करते हैं, जिसे एक निम्नवर्गीय परिवार का कोई भी लड़का आज के परिवेश में देखना तो दूर, सोचने का भी साहस नहीं कर सकता।
जी हाँ! मैं बात कर रहा हूँ एक ऐसे दुस्साहस की जिसे पढ़ाई कहते हैं। जब मैं दसवीं क्लास में था मुझे बताया गया दसवीं पास करना बहुत कठिन है। और फर्स्ट डिवीजन का तो सोचना भी असंभव है। मेरे मन में एक सवाल आया- ऐसा क्या है यार इस परीक्षा में? यह सवाल मुझे साल भर कभी न भूला। विद्यालय में जो पढ़ाया जाता रहा, उसी को पढ़ता रहा। लेकिन मन में यह भी सोचता रहा कि अगर यही सब परीक्षा में आना है; तो परीक्षा इतनी कठिन कैसे होगी? दिन बीते और परीक्षा का समय भी आया। प्रश्न सामान्य थे और उत्तर देने का ढंग भी लगभग वैसा ही था। लेकिन रिजल्ट आने पर पता चला कि मैंने बहुत बड़ा तीर मार लिया है। लोगों को भरोसा ही नहीं हुआ कि यह कैसे हो गया? और भरोसा हो भी क्यों? 3 बजे रात से उठकर अंग्रेजी के पैराग्राफ रटने का रूटीन मैंने बनाया था, लोगों ने नहीं ? गणित के चार- चार पन्ने के सवालों को चालीस-चालीस बार लिखने की आदत मैंने डाली थी, लोगों ने नहीं ? स्कूल से आने के बाद जंगल से लकड़ी लाने और फिर उस लकड़ी की आँच में सारी रात पढ़ाई करने का काम मैंने किया था, लोगों ने नहीं? इसलिए उनका भरोसा ना करना लाजमी था। खैर! दसवीं की परीक्षा में ठीक-ठाक नहीं, शानदार नंबर आए। 2016 में गाँव के किसी लड़के के लिए 86 प्रतिशत अंक बहुत थे। 11वीं में एडमिशन के लिए सभी ने कहा "यार तुम साइंस लो, तुम्हारे परसेंटेज किसी दूसरी स्ट्रीम से मैच नहीं करेंगे। अलग ही रुतबा है साइंस का।" मैंने साइंस ले लिया। पढ़ाई भी जमकर की। चूंकि चीजें कम समझ में आती थीं; इसलिए रटना भी पड़ता था। यही कारण था कि सामान्य बच्चों के स्टडी टाइम ड्यूरेशन से मेरा टाइम ड्यूरेशन बहुत ज्यादा था। रोजाना करीब 18 घंटे हो ही जाते थे। यह बात बहुत लोगों के लिए अपच और अविश्वसनीय हो सकती है; लेकिन मैंने अपनी जिंदगी में इसे नार्मल बना लिया था। 12वीं में भी मेरे 87% रिजल्ट रहे। फिर से एक बार गाँव वाले अभिभूत हो गए। कुछ लोगों ने सजेशन दिया "आपको साइंस कॉलेज में पढ़ना चाहिए।" परेशानियों के बावजूद मैंने इंदौर के एक साइंस कॉलेज में एडमिशन लिया। कॉलेज भी ऐसा वैसा नहीं था। मध्य प्रदेश का नंबर 1 साइंस कॉलेज और पूरे देश का चौथा सबसे बड़ा ऑटोनॉमस कॉलेज। वहाँ से मैंने बाटनी, केमिस्ट्री और जूलॉजी जैसे विषयों से अपना ग्रेजुएशन, 76% रिजल्ट के साथ पूरा किया। लेकिन कॉलेज के दौरान ही जब इंटर्नशिप का टाइम आया, तो मैंने इंटर्नशिप पत्रकारिता में की। इन सबसे उलट रुचि हमेशा साहित्य पढ़ने की रही। यही कारण रहा कि अपने कॉलेज के दिनों में मेरा रूटीन सुबह से शाम तक कोर्स की किताबें पढ़ना और रात में साहित्य की किताबें पढ़ना बन गया। मतलब कॉलेज में भी नींद पूरी ना हो सकी। फिर जिंदगी का सबसे बड़ा प्रश्न सामने आ खड़ा हुआ। प्रश्न था- "इन विज्ञान की किताबों और प्रेमचंद के उपन्यासों से आजीविका कैसे पूरी होगी? मेरा चिंतित होना लाजमी था। फिर किसी ने बताया "भारतीय जनसंचार संस्थान का एंट्रेंस एग्जाम दो। तुम्हारी साहित्य में रुचि भी है, और पत्रकारिता साहित्य से अलग तो है नहीं?" मैंने यह सलाह मान ली। IIMC की तैयारी प्रारंभ हुई और अच्छे से हुई। भरोसा कम था कि मैं देश के सबसे बड़े मीडिया अध्ययन संस्थान में चयनित होऊँगा; लेकिन अंततः मै सिलेक्ट हो गया। आज मैं वहाँ का छात्र हूँ। संभव है आजीविका भी मिल ही जाएगी। वो भी ठीक-ठाक। लेकिन दिक्कत वही है- सब कुछ मिलने के बाद भी सोने के लिए 8 घंटे का समय नहीं मिलेगा। क्योंकि पत्रकारिता 12×24 × 7 अर्थात बारहों महीने सातों दिन चौबीसों घंटे वाला पेशा है। यह अहसास ट्रेनिंग के दौरान ही हो रहा है। जब मीडिया इंडस्ट्री में जाएंगे तो ऐसा होना तय है। फिर भी इससे मुझे ज्यादा परेशानी नहीं होगी। क्योंकि मेरे लिए यह पहले से ही रुटीन बात है। यही कारण है की 21 साल की उम्र में ही आँखों के नीचे गड्ढे हैं। कभी-कभी हम बहुत बड़ा पाने के लिए उससे भी बहुत बड़ा खो देते हैं। आज जब मैं अपने हमउम्र लोगों के साथ खड़ा होता हूँ, तो न जाने क्यों मुझे हीन भावना का अहसास होता है। इसलिए नहीं कि मैंने जीवन में कम पाया है, बल्कि इसलिए कि मैंने जितना पाया है उससे कहीं ज्यादा खो दिया है। बड़े बूढ़े कहते हैं- "जवानी का खाना और सोना बुढ़ापे के लिए बोनस होता है।" दुर्भाग्यवश मैंने यह बोनस खो दिया है.!।
Waah🌺🌺
ReplyDeleteBohut pyara likha hh Vimlesh
ReplyDeleteExcellent 👌👌
ReplyDeleteAmmejing sir so nice
ReplyDeleteLavkush gawle
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