पर्दे के पीछे की दास्तान

 


तुम M.Sc इसी कॉलेज से करोगे ना? इंटर्नशिप के आखिरी दिन उसने मुझसे पूछा था।

मैंने मुस्कुरा कर उत्तर दिया था- हाँ माइ डियर और कहाँ जाऊंगा? इस कॉलेज में सब कुछ तो है अपना!

सबकुछ क्या?

अरे पगली! तुम नहीं हो मेरा सबकुछ? 

मैं?

हाँ..। इतना सरप्राइस होने की जरूरत नहीं है। तुम्हीं तो हो मेरा सबकुछ। 

निःशब्द हो गई थी वह। प्रेम ने मौन का रुप धारण कर लिया था। खुशी के मारे झूम गई थी मेरी बाहों में।

अरे क्या कर रही हो? सामने प्रोफेसर्स खड़े हैं। 

मैंने अलर्ट करते हुए कहा था। लेकिन अनसुना कर दिया था मेरी बात को उसने।

मेरी आँखों में निहारते हुए बड़ी उम्मीद भरी नजरों से धीमे स्वर में उसने कहा था - झूठ तो नहीं बोल रहे हो ना?

नही यार! तुमसे झूठ क्यों बोलूँगा। गंभीर होते हुए मैंने उत्तर दिया था।

मुझे तुमसे यही उम्मीद थी क्षितिज।

बड़े गंभीर लेकिन सुखद अल्फाज में उसने कहा था।

और फिर जैसे फूल भंवरों के पास होने से असीम आनंद का अनुभव करते हैं, वैसे ही वह मेरे बाहों में लिपटी किसी दूसरे लोक में खो गई थी।

इंटर्नशिप वाइवा शुरू होने में 2 मिनट शेष थे, मैंने आहिस्ते से आवाज दी...- चलें वाइवा देने या इसी पोजीशन में बनी रहोगी?

चलो चलते हैं।.... उसने निःश्वास छोड़ते हुए कहा था।

उसका वाइवा लंबा चला था, मैंने उतना इंतजार नहीं किया। वह हमारे ग्रेजुएशन का आखिरी दिन था..।


मेरा फोन खराब हो गया था। समय का अभाव भी हम दोनों को बना रहता था। लिहाजा बातचीत बंद हो गई। फिर कोविड की दूसरी लहर ने सब कुछ तहस-नहस कर दिया। जून में परीक्षाएँ हुईं, वो भी ऑनलाइन। मिलने का कोई रास्ता नहीं था। परीक्षा की कॉपी सबमिट करने के बाद व्यस्तता इतनी बढ़ गई थी; कि वास्तव में मुझे बहुत सारी चीजें भूल गई थीं। इन्हीं भूलों में 'कोई मुझे याद कर रहा होगा' एक भूल यह भी थी।


सितंबर के आखिर में उसका फोन आया।

 -क्षितिज काउंसलिंग शुरू हो गई है। कहाँ हो तुम? 

मैं इंदौर में ही हूँ यार..। लेकिन मुझे तुमसे एक बात बतानी है।

क्या?

यही..... कि मैं M.Sc नहीं कर रहा? 

तो क्या कर रहे हो क्षितिज...? विज्ञान तो तुम्हारी फेवरेट स्ट्रीम है ना..? क्या पढ़ाई छोड़ रहे हो ..?

नहीं, पढ़ाई तो नहीं छोड़ रहा, मेरा मन बदल गया है। स्ट्रीम चेंज कर रहा हूँ। IIMC से पत्रकारिता की पढ़ाई करूँगा। एंट्रेंस दे दिया है। हो जाऊँगा सेलेक्ट।


अग्रिम शुभकामनाएँ दोस्त...। एक उभरती चाहत को अंकुरित होने से पहले ही तुमने दफन कर दिया। काश! मैं वहाँ पर ठहर कर पूछ लेती "जब तुम्हें M.Sc ही करनी है तो इंटर्नशिप पत्रकारिता में क्यों कर रहे हो?" लेकिन तुम्हारे विश्वास ने मस्तिष्क को सवाल ही नहीं उठाने दिया। मैंने विज्ञान के ह्रदय की संरचना को तो पढ़ा, लेकिन प्रेम के हृदय की संरचना को नहीं पढ़ सकी। ऑल द बेस्ट दोस्त....।


मन में हिलोरें मारतीं उथल-पुथल सफलता मिलने और व्यस्त होने पर वाकई दब जाती हैं। यह इंसीडेंट मुझे कुछ दिनों तक तो याद रहा, खुद पर ग्लानि भी हुई, लेकिन कुछ समय बाद सब कुछ भूल गया। कहते हैं कि प्रेम की तरंगों को कुछ समय के लिए दबाया जा सकता है लेकिन दफन नहीं किया जा सकता। शायद! यही कारण हो कि ये तरंगे कल अचानक से मन में उठने लगीं। परेशान मन को समझाइश देने के लिए मैंने उसकी एक सहेली को फोन लगाया। यह जानने के लिए कि वह कैसी है? पता चला कि उसी लाइब्रेरी में जिसमें कभी हम साथ में बैठकर विज्ञान की किताबें पढ़ते थे; आज वह वहाँ पर अकेली बैठी साहित्य की किताबें पढ़ रही है। क्योंकि मैंने कभी बता दिया था कि जब तुम कोर्स की किताबें पढ़ने में व्यस्त हो जाती हो, तो मैं अज्ञेय के उपन्यास निकाल लेता हूँ। ऐसा लगता है कि अकेले लाइब्रेरी में बैठी वह मुझसे कह रही हो 'देखो मैं खुलेआम अज्ञेय को पढ़ रही हूँ। फ्रायड की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले अज्ञेय को।' 'तुमने भुवन का किरदार तो निभा दिया है, मुझे रेखा का किरदार निभाना बाकी हैं। मैं मिलूंगी मेरे भुवन अगले जनम में......।'

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