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दिल्ली में भोगा अपना यथार्थ

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अप्रैल का महीना, साल 2022, दिल्ली का कोई मेट्रो स्टेशन 3 साल से कोई कपड़े नहीं खरीदे थे, इसलिए पैसे ना होने के बावजूद पालिका बाजार चला गया था। साथ में थे हमारे बंगला नंबर 14 के जिगरी यार। वहां हमने शॉपिंग की, और बढ़िया कपड़े भी खरीदे। नए कपड़े पहनने की इतनी जल्दी थी कि मुझसे रहा न गया। पालिका बाजार से निकलते ही राजीव चौक मेट्रो स्टेशन के बाहर मैंने कपड़े चेंज कर लिए। सारे लौंडे खूब तारीफ कर रहे थे। मकसद भले ही उनका चने की झाड़ पर चढ़ाना रहा हो, लेकिन तारीफ तो तारीफ होती हैं ना गुरु, आदमी चने की झाड़ पर तो क्या एफिल टावर पर भी चढ़ जाए। खैर! मुझे 3 साल बाद नए लिवास धारण करने की खुशी थी और मेरे साथ वाले भी बहुत खुश थे। इसी खुशी में मस्ती करते हुए हम सब आईआईएमसी हॉस्टल की तरफ कूच करने लगे। बीच में एक मेट्रो स्टेशन में ( नाम ठीक से याद नहीं) हमारे फोटो शूट चलने लगे। उस दिन ना तो मेरा बर्थडे था, ना कोई लॉटरी लगी थी, और ना ही मेरा प्लेसमेंट हुआ था, पर पता नहीं क्या था कि फोटो शूटिंग का केंद्र बिंदु मै ही था। ज्यादातर फोटो मेरे ही खींचे गए। सोलो भी और ग्रुप भी।  उसी वक्त एक मजेदार वाकया हुआ था

राजधानी का बिगड़ता माहौल सांप्रदायिक सौहार्द के लिए चुनौती।

16 अप्रैल को दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में हुई हिंसा ने देश के सांप्रदायिक सौहार्द पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है। प्रश्न उठता है कि देश में हिंदू मुस्लिम एकता क्या नाम मात्र की रह गई है? या फिर यह वास्तव में है, और कुछ संगठनों द्वारा जानबूझकर इसको तोड़ने की कोशिश की जा रही है? जो भी हो लेकिन तथ्य यह है कि देश में सब जगह सब कुछ सही नहीं चल रहा है। मध्य प्रदेश से लेकर तमिलनाडु तक सभी जगह सांप्रदायिक हिंसा की खबरें आई हैं। इस बीच 16 अप्रैल को दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में दो समुदायों के बीच हुई झड़प अब बहुत ही संवेदनशील मुद्दा बन गया है। 16 अप्रैल के तीन-चार दिनों बाद तक मामला नियंत्रित होता दिख रहा था, लेकिन उत्तरी दिल्ली नगर निगम की 20 अप्रैल को अतिक्रमण के खिलाफ की गई कार्रवाई ने एक बार फिर से मामले में गहमागहमी ला दी है।  यहाँ पर उत्तरी दिल्ली नगर निगम पर भी कई सवाल खड़े हो रहे हैं। जब पूरे देश में माहौल सांप्रदायिक हो रहा है तब ऐसी स्थिति में उस स्थान पर जहाँ 4 दिन पहले सांप्रदायिक झड़प और हिंसा हुई थी क्या उत्तरी दिल्ली नगर निगम को इस तरह की अंधाधुन्ध कार्यवाही करनी चा

नई विश्व व्यवस्था में बदलाव की सुगबुगाहट

रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे  विवाद ने अब युद्ध का रूप ले लिया है। इसी के साथ नई विश्व व्यवस्था की सुगबुगाहट भी प्रारंभ होने लगी है। दिसंबर 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद पूरे विश्व के सामने अमेरिका एक नई शक्ति के रूप में उभरा था। एक लंबे समय तक विश्व पर अमेरिका का आधिपत्य भी रहा। लेकिन अब विश्व के कई देश अमेरिका के इस आधिपत्य को नकारने लगे हैं। इसी का नतीजा है यूक्रेन रूस विवाद। 1949 में बने NATO (Non Atlantic treetiy Organization) समूह में अब तक यूरोप के 30 देशों को शामिल किया जा चुका है, लेकिन लंबे समय तक अमेरिका के पूरे विश्व में आधिपत्य होने के बावजूद यूक्रेन को नाटो की सदस्यता ना दिला पाना उसकी कमजोरी को प्रदर्शित करता है। दूसरे विश्व युद्ध में जब दुनिया दो धड़ों में विभाजित हो गई थी उस समय भी अमेरिका ने अपनी शाख बचाए रखी थी। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में अमेरिका द्वारा किए गए बम विस्फोट उसे विश्व शक्ति के रूप में प्रदर्शित करने लगे थे। वर्ष 1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ, उससे पूर्व ईराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन के कुवैत पर हमला करने पर अमे

मुझे पसंद है-

मुझे पसंद है तुम्हारा लाइब्रेरी में बैठे किताबों से गुफ्तगू करना, मुझे पसंद है तुम्हारा गहन अध्ययन, तुम्हारी गंभीरता। मुझे पसंद तुम्हारी बातों का भारीपन, तुम्हारे कहने का सलीका और मुद्दे की समझ, मुझे पसंद हैं तुम्हारे विज्ञानसम्मत तथ्य, मैं तुमसे करना चाहता हूँ बातें साम्यवाद पर, समाजवाद पर, पूँजीवाद पर, मै तुमसे जानना चाहता हूँ तुम्हारा दुनिया को देखने का नजरिया, मै तुमसे दर्शन, विज्ञान, मनोविज्ञान, साहित्य सभी पर चर्चा करना चाहता हूँ, लेकिन इतना सब किसी एक ‘तुम’ में नहीं मिलता, हर जगह हल्के लोग और उनका हल्कापन, यह सब देखकर मेरे दिमाग में गोलमटोल चीजें घूमनें लगती हैं- आकर्षण,प्रतिकर्षण,इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रान, चैडविक, रदफोर्ड, गोल्डस्मिथ, न्यूटन, मेण्डल, मैडलीफ, ल्यूवेनहाँक, प्लाजमोडियम, ट्यूबरकुलोसिस, मलेरिया, केल्विन साइकल, निराला, पंत, महादेवी, अज्ञेय, मुक्तिबोध, देवताले, नागार्जुन, प्रेमचंद, भंडारी, यादव, कमलेश्वर, द्वैतवाद, अद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद, साइन्स कालेज,बायोटेक्नोलॉजी, NIT, IIT, DU, JNU,IIMC वर्धा, जामिया, किसी को छोड़ने का अफसोस तो किसी को न पाने का दुख, और किसी

मैंने लोगों को बदलते देखा है।

दिल्ली आने से पहले मैंने हजारों बार सोचा था कि- कैसी होगी दिल्ली ? कैसे होंगे यहाँ के लोग ? कैसा होगा यहाँ का परिवेश ? और... कैसे छोटे शहरों और गाँवों से आए हुए लोग कुछ समय बाद बदल जाते होंगे? यही सब सोच- सोच कर आखिर मैं भी कुछ महीनों के लिए दिल्ली आ ही गया। और, बहुत कुछ तो नहीं देखा, पर हाँ! छोटे शहरों से आए हुए लोगों को बदलते जरूर देखा। वो जो कभी रूम में बैठे ज्ञान देते थे कि- जिंदगी में कोई भी ऐसा काम मत करना जिसे अपने मम्मी पापा से छुपाना पड़े, वो जो मेरे मुँह से एक भी गाली निकलने पर कह देते थे कि- तुममें बात करने का शऊर नहीं है, तुम्हें बात करने का सलीका नहीं आता, वो जो दिल्ली आकर इतने गंभीर हो गए थे, जिन्हें देखकर लगता था कि- भगवान राम के बाद पृथ्वी पर इनका ही अवतार हुआ है, वो जो बात- बात पर हमसे खफ़ा हो जाते थे, हमेशा शिकायत होती थी उनकी कि- आप लोगों को तो अपने रूममेंट का भी खयाल नहीं है। मैंने उन लोगों को भी बदलते देखा है। बदलना यानी कि परिवर्तित होना, बहुत अच्छी बात है, परिवर्तन ही जीवन का नियम है, लेकिन बदलाव जब आपको गर्त में धकेलने लगे, तब वह बदलाव नहीं कुछ और हो जाता है। मैं

पर्दे के पीछे की दास्तान

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  तुम M.Sc इसी कॉलेज से करोगे ना? इंटर्नशिप के आखिरी दिन उसने मुझसे पूछा था। मैंने मुस्कुरा कर उत्तर दिया था- हाँ माइ डियर और कहाँ जाऊंगा? इस कॉलेज में सब कुछ तो है अपना! सबकुछ क्या? अरे पगली! तुम नहीं हो मेरा सबकुछ?  मैं? हाँ..। इतना सरप्राइस होने की जरूरत नहीं है। तुम्हीं तो हो मेरा सबकुछ।  निःशब्द हो गई थी वह। प्रेम ने मौन का रुप धारण कर लिया था। खुशी के मारे झूम गई थी मेरी बाहों में। अरे क्या कर रही हो? सामने प्रोफेसर्स खड़े हैं।  मैंने अलर्ट करते हुए कहा था। लेकिन अनसुना कर दिया था मेरी बात को उसने। मेरी आँखों में निहारते हुए बड़ी उम्मीद भरी नजरों से धीमे स्वर में उसने कहा था - झूठ तो नहीं बोल रहे हो ना? नही यार! तुमसे झूठ क्यों बोलूँगा। गंभीर होते हुए मैंने उत्तर दिया था। मुझे तुमसे यही उम्मीद थी क्षितिज। बड़े गंभीर लेकिन सुखद अल्फाज में उसने कहा था। और फिर जैसे फूल भंवरों के पास होने से असीम आनंद का अनुभव करते हैं, वैसे ही वह मेरे बाहों में लिपटी किसी दूसरे लोक में खो गई थी। इंटर्नशिप वाइवा शुरू होने में 2 मिनट शेष थे, मैंने आहिस्ते से आवाज दी...- चलें वाइवा देने या इसी पोजीशन म

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ओबीसी समुदाय से हैं।

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 "Prime minister belongs to the OBC community. " -BJP spoke person SAHJAD PUNAWALA has said on india today show. अब मेरे कुछ सवाल- (1) यह उत्तर प्रदेश चुनाव के समय ही क्यों याद आया? (2) मोदी जी तो राष्ट्र पर भरोसा करते हैं, जाति और समुदाय पर नहीं। फिर ऐसी क्या मजबूरी है कि भाजपा के प्रवक्ता प्रधानमंत्री का समुदाय बता रहे हैं? (3) अगर वोट बटोरने के लिए प्रधानमंत्री को अपना समुदाय बेचना पड़ रहा है, तो फिर कैसे होगा 'सबका साथ, सबका विकास? और कैसे मिल पाएगा सबका विश्वास' ? (4) अगर प्रधानमंत्री ओबीसी समुदाय से आते भी हैं, तो जब जातिगत जनगणना के मुद्दे उठाए गए, तो सरकार ने इसको टालने की कोशिश क्यों की?  (5) जब देश की आबादी का आधा हिस्सा ओबीसी समुदाय ही है( 1931 की जनगणना के अनुसार) और प्रधानमंत्री को भी ओबीसी समुदाय का हिमायती बताया जा रहा है; तो सरकार जातिगत जनगणना कराने से क्यों मुकर रही है ? (6) प्रधानमंत्री के ओबीसी समुदाय से होने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी पर 'सवर्णों की पार्टी' होने का आरोप क्यों लगता है? (7) वर्ण व्यवस्था के अनुसार ओबीसी समुदाय को शूद्रों म