राजधानी का बिगड़ता माहौल सांप्रदायिक सौहार्द के लिए चुनौती।
16 अप्रैल को दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में हुई हिंसा ने देश के सांप्रदायिक सौहार्द पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है। प्रश्न उठता है कि देश में हिंदू मुस्लिम एकता क्या नाम मात्र की रह गई है? या फिर यह वास्तव में है, और कुछ संगठनों द्वारा जानबूझकर इसको तोड़ने की कोशिश की जा रही है? जो भी हो लेकिन तथ्य यह है कि देश में सब जगह सब कुछ सही नहीं चल रहा है। मध्य प्रदेश से लेकर तमिलनाडु तक सभी जगह सांप्रदायिक हिंसा की खबरें आई हैं। इस बीच 16 अप्रैल को दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में दो समुदायों के बीच हुई झड़प अब बहुत ही संवेदनशील मुद्दा बन गया है। 16 अप्रैल के तीन-चार दिनों बाद तक मामला नियंत्रित होता दिख रहा था, लेकिन उत्तरी दिल्ली नगर निगम की 20 अप्रैल को अतिक्रमण के खिलाफ की गई कार्रवाई ने एक बार फिर से मामले में गहमागहमी ला दी है।
यहाँ पर उत्तरी दिल्ली नगर निगम पर भी कई सवाल खड़े हो रहे हैं। जब पूरे देश में माहौल सांप्रदायिक हो रहा है तब ऐसी स्थिति में उस स्थान पर जहाँ 4 दिन पहले सांप्रदायिक झड़प और हिंसा हुई थी क्या उत्तरी दिल्ली नगर निगम को इस तरह की अंधाधुन्ध कार्यवाही करनी चाहिए थी? उसके बाद सबसे बड़ा सवाल तो यह उठता है कि उच्चतम न्यायालय के आदेश के बावजूद कार्रवाई क्यों जारी रही? और उत्तरी दिल्ली नगर निगम के मेयर यह क्यों कहते रहे कि हमें उच्चतम न्यायालय की तरफ से कोई लिखित डॉक्यूमेंट नहीं मिला है? क्या ये सब उत्तरी दिल्ली नगर निगम के मेयर द्वारा स्वयं के अधिकारों का उपयोग करते हुए किया गया या फिर ऊपरी दबाव के चलते? इतना साहस कहां से आया कि मेयर साहब उच्चतम न्यायालय के आदेश को नजरअंदाज करते दिखने लगे। अंदाजा लगाने वाले साफ तौर पर लगा सकते हैं। यह भी कयास लगाए जा सकते हैं कि क्या एक पार्टी विशेष अपने राजनीतिक फायदे के लिए सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रही है। क्या एक पार्टी विशेष के द्वारा अगले लोकसभा चुनाव के लिए बुलडोजर सिस्टम को एक प्रतिमान बनाया जा रहा है? यह प्रश्न तब और प्रबल हो जाता है जब इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन भी जेसीबी में बैठकर अपनी फोटो खिंचवाते हैं। अब चाहे बुलडोजर का राजनीतिकरण किया जा रहा हो या ध्रुवीकरण के माध्यम से चुनाव जीतने की तैयारी चल रही हो, लेकिन बड़ी बात यह है इन कि सबसे आम जनता प्रभावित हो रही है।
जिस कार्रवाई के तहत रेहड़ी पटरी वालों की दुकानें और कथित अतिक्रमण को हटाया गया इसकी वैधानिकता तथा मानवीयता दोनों पर सवाल उठ रहे हैं। उधर दिल्ली सरकार ने भी दंगे पर ज्यादा ध्यान ना देते हुए बस एक ही ट्वीट पर मामला निपटाने की कोशिश की। पिछले दिनों विपक्षी दलों के 12 नेताओं ने एक संयुक्त पत्र राष्ट्रपति को सौंपा था जिसमें यह कहा गया था कि देश में सांप्रदायिक सौहार्द ठीक नहीं हैं, और समुदायों के बीच आपसी सामंजस्य भी ठीक नहीं बैठ रहा है। इस पर केंद्र सरकार को ध्यान देना चाहिए। इस पत्र में मुख्य किरदार कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी का है। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि कांग्रेस के ज़माने में भी पर्याप्त दंगे और इस तरह की तमाम छोटी-बड़ी सांप्रदायिक झड़पें होती रही हैं।
कुल मिलाकर यह कि दूध का धुला कोई भी नहीं है। न केंद्र सरकार न ही राज्य सरकार और ना ही हमारी लोकल बॉडीज। और पुलिस प्रशासन के तो क्या ही कहने? ऊपर बैठी सरकारें उन्हें जिस तरह से नृत्य करने पर विवश करती हैं वे उसी तरह का नृत्य करते हैं। इन सब की हकीकतों के बाद अब हमें निर्धारित करना है कि हम क्या निर्णय लेते हैं। हम संविधान की मूल भावना पर आने वाली सरकारों को काम करने के लिए बाध्य कर सकते हैं या नहीं? या इसी तरह की दमघोटू मानसिकता वाले समाज को निर्मित होते देखना चाहते हैं।
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